वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

स꣣ह꣡र्ष꣢भाः स꣣ह꣡व꣢त्सा उ꣣दे꣢त꣣ वि꣡श्वा꣢ रू꣣पा꣢णि꣣ बि꣡भ्र꣢तीर्द्व्यूध्नीः । उ꣣रुः꣢ पृ꣣थु꣢र꣣यं꣡ वो꣢ अस्तु लो꣣क꣢ इ꣣मा꣡ आपः꣢꣯ सुप्रपा꣣णा꣢ इ꣣ह꣡ स्त ॥६२६

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

सहर्षभाः सहवत्सा उदेत विश्वा रूपाणि बिभ्रतीर्द्व्यूध्नीः । उरुः पृथुरयं वो अस्तु लोक इमा आपः सुप्रपाणा इह स्त ॥६२६

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स꣣ह꣡र्ष꣢भाः । स꣣ह꣢ । ऋ꣣षभाः । सह꣡व꣢त्साः । स꣣ह꣢ । व꣣त्साः । उदे꣡त꣢ । उ꣣त् । ए꣡त꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । रू꣣पा꣡णि꣢ । बि꣡भ्र꣢꣯तीः । द्व्यू꣣ध्नीः । द्वि । ऊध्नीः । उरुः꣢ । पृ꣣थुः꣢ । अ꣣य꣢म् । वः꣣ । अस्तु । लोकः꣢ । इ꣣माः꣢ । आ꣡पः꣢꣯ । सु꣣प्रपाणाः꣢ । सु꣣ । प्रपाणाः꣢ । इ꣣ह꣢ । स्त꣣ ॥६२६॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 626 | (कौथोम) 6 » 3 » 4 » 12 | (रानायाणीय) 6 » 4 » 12


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र का गौ देवता है। गौओं के साम्य से इन्द्रियों को कहा जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्रियरूप गौओ ! (सहर्षभाः) जीवात्मारूप वृषभ से युक्त, (सहवत्साः) मन रूप बछड़े से युक्त, (विश्वा रूपाणि) आँख, कान, त्वचा आदि विभिन्न नामों को (बिभ्रतीः) धारण करती हुई, (द्व्यूध्नीः) ज्ञान-कर्म रूप दो ऊधसों से युक्त होती हुई तुम (उदेत) उद्यम करो। (उरुः) बहुत लम्बा, (पृथुः) बहुत चौड़ा (अयम्) यह (लोकः) लोक (वः) तुम्हारे उपयोग के लिए (अस्तु) हो। (इमाः) ये (सुप्रपाणाः) सुख से आस्वादन किये जाने योग्य (आपः) जलों के समान प्राप्तव्य रूप, रस, गन्ध आदि विषय हैं, (इह) इनमें (स्त) रहो, अर्थात् इनका यथायोग्य आस्वादन करो ॥१२॥

भावार्थभाषाः -

गायों के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। जैसे गायें वृषभ और बछड़ों के साथ विचरती हैं, वैसे ही इन्द्रियाँ आत्मा और मन के साथ। जैसे गायें सफेद, काले आदि रूपों को धारण करती हैं, वैसे इन्द्रियाँ आँख, कान आदि रूपों को। जैसे गायें प्रातः-सायं दोनों कालों में भरे हुए ऊधस् वाली होने से ‘द्व्यूध्नी’ कहलाती हैं, वैसे इन्द्रियाँ ज्ञान और कर्म रूप ऊधस् वाली होने से ‘द्व्यूध्नी’ होती हैं। जैसे गायें विस्तीर्ण चरागाहों में विचरती हैं, वैसे इन्द्रियाँ विस्तीर्ण विषयों में। जैसे गायें सुपेय जलों को पीती हैं, वैसे इन्द्रियाँ विषयरसों को। इन इन्द्रिय रूप गायों के श्रेष्ठ ज्ञान और श्रेष्ठ कर्म रूप दूध का सेवन कर निरन्तर शारीरिक और आत्मिक उन्नति सबको प्राप्त करनी चाहिए ॥१२॥ इस दशति में अग्नि की ज्वाला रूप जिह्वा, सब ऋतुओं की रमणीयता, परम पुरुष परमेश्वर की महिमा, माता-पिता के कर्तव्य, ब्रह्मवर्चस एवं बल की प्राप्ति आदि विषयों का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ गौर्देवता। गवां साम्येनेन्द्रियाण्युच्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्रियरूपा१ गावः ! (सहर्षभाः) जीवात्मरूपेण वृषभेण सहिताः, (सहवत्साः) मनोरूपेण वत्सेन च सहिताः (विश्वा रूपाणि) सर्वाणि चक्षुःश्रोत्रत्वगाद्यानि नामानि (बिभ्रतीः) धारयन्त्यः (द्व्यूध्नीः) ज्ञानकर्मरूपेण आपीनद्वयेन युक्ताः यूयम् (उदेत) उद्यमं कुरुत। (उरुः) सुदीर्घः (पृथुः) सुविस्तीर्णः (अयम्) एषः (लोकः) भुवनम् (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) भवतु। (इमाः) एताः (सुप्रपाणाः) सुखेन पातुम् आस्वादयितुं योग्याः (आपः) जलानीव आप्तव्याः रूपरसगन्धाद्याः विषयाः सन्ति, (इह स्त) एषु भवत, इमान् यथायोग्यम् आस्वादयद्ध्वमित्यर्थः ॥१२॥

भावार्थभाषाः -

धेनुपक्षेऽपि योजनीयम्। यथा गावो वृषभेण वत्सेन च सह विचरन्ति, तथा इन्द्रियाण्यात्मना मनसा च सह। यथा गावः श्वेतकृष्णादिरूपाणि बिभ्रति तथेन्द्रियाणि चक्षुःश्रोत्रादिरूपाणि। यथा गावः सायंप्रातरुभयोः कालयोः पूर्णोधस्त्वेन द्व्यूध्नीः, तथेन्द्रियाणि ज्ञानेन कर्मणा च। यथा गावो विस्तीर्णेषु गोचरेषु विचरन्ति तथेन्द्रियाणि विस्तीर्णेषु विषयेषु। यथा गावः सुपेयानि जलानि पिबन्ति, तथेन्द्रियाणि विषयरसान्। एषामिन्द्रियरूपाणां गवां सज्ज्ञान-सत्कर्मरूपं पयः संसेव्य सततं दैहिक्याध्यात्मिकी च पुष्टिः सर्वैः प्राप्तव्या ॥१२॥ अत्राग्निजिह्वा-सर्वर्तुरमणीयत्व-परमपुरुषमहिम-मातापितृकर्तव्य- वर्चःसहप्राप्त्यादिवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति षष्ठेऽध्याये चतुर्थः खण्डः ॥

टिप्पणी: १. (गाः) इन्द्रियाणि—इति ऋ० १।१०।८ भाष्ये द०।